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Monday, December 25, 2023

सांवले राम-कृष्ण के देश में श्यामवर्ण को लेकर दुराग्रह क्यों

मुकेश भूषण

सौंदर्य के प्रतिमान भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर बदलते रहते हैं। किसी एक फॉर्मूले से यह तय नहीं किया जा सकता कि कौन सुंदर या असुंदर है। ज्यादातर संदर्भों में तो यह समझ पाना भी कठिन होता है कि किन कारणों से कोई सुंदर या असुंदर लगने लगता है। यदि कारणों की पड़ताल करें तो यही पाएंगे कि सुंदर या असुंदर महसूस होने के पीछे पूर्वाग्रह है, जो हमारी परवरिश का नतीजा होता है। हमारे सौंदर्यबोध पर परिवार और समाज की गहरी छाप होती है। वैसे तो पसंद-नापसंद निजी मामला है लेकिन, तभी तक जब तक इससे दूसरों पर कोई असर न हो। यदि पसंद-नापसंद मानवीय संकट (ईर्ष्या, द्वेष, नफरत, हिकारत इत्यादि) पैदा करने लगे या किसी को हीनभावना से ग्रस्त बनाने लगे तो निश्चित रूप से पसंद या नापसंद के बोध का परिमार्जन होना चाहिए। परिमार्जन की इसी प्रक्रिया को सुसंस्कारित होना भी कहते हैं। धर्म, जाति या रंग के बारे में हमारी पसंद या नापंसद जब निजता का दायरा पार करने लगे तो समझ जाना चाहिए कि अभी हमें सुसंस्कृत होना बाकी है।

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने हाल में तलाक की एक अर्जी को खारिज किया है जिसमें पति सांवले रंग के कारण पत्नी से अलग होना चाहता था। पत्नी का गहरा रंग उसे पसंद नहीं था। इस मामले ने एक बार फिर देश में व्याप्त रंगभेद के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है। वैसे तो रंगभेद की जब भी चर्चा होती है, पश्चिम के देशों में हुए या हो रहे भेदभावपूर्ण बर्ताव ही याद आते हैं। अमरीका या दक्षिण अफ्रीका में चले आंदोलन का अक्सर जिक्र होता है। भारत में सामान्य तौर पर मान लिया गया है कि यहां रंग के आधार पर भेदभाव नहीं है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि यहां जाति के आधार पर भेदभाव की जड़ें ज्यादा गहरी हैं, जो रंगभेद को अक्सर 'ओवरलैप' कर लेती है। दूसरी वजह यह कि भारत में रंगभेद 'डिफॉल्ट सौंदर्यबोध' का नतीजा ज्यादा लगता है न कि नस्लवादी दुराग्रह का। जातीय भेदभाव से मुक्ति हमारी प्राथमिकता रही है और उसके खिलाफ आंदोलन भी होते रहे हैं। यहां कभी काले-सांवले-गोरे में भेदभाव के खिलाफ आंदोलन नहीं हुआ। गुलामी के दौर में हर रंग-रूप, जाति-धर्म और वंश-नस्ल के देशवासी अंग्रेजों के भेदभाव के शिकार थे। स्वतंत्रता आंदोलन ने हमारे समाज में व्याप्त अन्य भेदभावों को तो संबोधित किया पर रंगभेद को नहीं, क्योंकि गोरे तब सिर्फ अंग्रेज के रूप में ही सामने थे। अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय संविधान में हर तरह के भेदभाव रोकने के प्रावधान पहले ही कर दिए गए। दक्षिण अफ्रीका या अमरीका की तरह इसके लिए अलग से सत्ता प्रतिष्ठानों से लड़ना नहीं पड़ा। इसीलिए समाज में व्याप्त रंगभेद के खिलाफ जैसी जागरूकता आनी चाहिए थी, नहीं आ सकी। रंग के आधार पर परिवार और समाज में अनायास भेदभाव होता रहा। अंग्रेज चले गए पर 'गोरे' विभिन्न रूपों में स्थापित हो गए और किसी को इसकी चिंता नहीं रही।

हमारा देश आर्य, द्रविड़, मंगोल व अन्य कई मूल के निवासियों का घर है। जाहिर है, रहन-सहन और भाषा ही नहीं, रंग-रूप में भी काफी विविधताएं हैं। समय की शिला पर कई तरह के आग्रह-दुराग्रह भी दर्ज हैं और इसी आधार पर सौंदर्य के प्रतिमान भी गढ़ लिए गए हैं। उन्हीं प्रतिमानों के कारण अक्सर रंग को लेकर हमारा पूर्वाग्रह सामने आ ही जाता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि विदेशों में स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से रंगभेद के शिकार होते हैं, लेकिन भारत में इसका शिकार अक्सर सिर्फ स्त्रियों को ही बनना पड़ता है। परिवारों में होने वाले संवाद से लेकर सौंदर्य प्रसाधन के प्रमोशन तक इस भेदभाव को बढ़ावा दे रहे हैं। खतरनाक बात यह है कि इसे रोकने की छटपटाहट कहीं नहीं दिखती। महिलाएं मौन रहकर इसे झेलती हैं और पुरुषों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जाहिर है इस भेद को मिटाने के लिए भी किसी बड़े आंदोलन की जरूरत है। घर और बाहर हर जगह के संवादों-व्यवहारों को परिष्कृत करना होगा। सौंदर्य के प्रतिमानों को बदलना होगा, तभी सौंदर्यबोध परिष्कृत होगा और हमारा समाज सुसंस्कृत हो सकेगा।

सौंदर्यशास्त्रों की मिमांसा से पता चलता है कि हमारा मन-मस्तिष्क जिसे श्रेष्ठ समझने लगता है, उसकी सापेक्ष नकल को ही तुलनात्मक रूप से सुंदर भी मानने लगता है। उदाहरण के लिए घर-घर में नियमित संवाद का हिस्सा 'राजकुमार जैसा बेटा' या 'राजकुमारी जैसी बेटी' को ही लें। जैसे सुंदर होने का मतलब राजकुमार जैसा होना ही है। जब हम राजकुमार की काल्पनिक छवि बनाते हैं तो किसी काले व्यक्ति की तस्वीर सामने नहीं आती, वह गोरा ही होता है। राजकुमारी भी हमेशा गोरी-चिट्टी ही दिखती है। क्या यह सोचा गया कि ऐसा क्यों होता है? प्राचीन काल से राजा शक्ति का प्रतीक है। राजपरिवार को हर तरह से श्रेष्ठ मानना शक्ति की उपासना करने वाले समाज का एक निर्विवाद सहज विकल्प है। इसीलिए 'डिफॉल्ट सौंदर्यबोध' का अभिशाप 'निर्बल नारी' को ही झेलना पड़ता है। जन्म के बाद बच्चे समाज में उसी तरह पलते-बढ़ते हैं, जैसे कुम्हार की चाक पर चिकनी मिट्टी के लोंदे। हमारी परवरिश जाने-अनजाने, सायास-अनायास बच्चों के विकसित होते सौंदर्यबोध में अनाम शासकों के (काल्पनिक) वर्ण के प्रति अनजाना आकर्षण भर रहा है। इसे लंबी गुलामी का अभिशाप भी कह सकते हैं। किस्सा-कहानी, गीत-संगीत, नाटक-सिनेमा और यहां तक कि वैवाहिक विज्ञापण से भी रंगभेद से युक्त 'डिफॉल्ट सौंदर्यबोध' दिन-प्रतिदिन और मजबूत होता जा रहा है। सांवले राम-कृष्ण के इस देश में श्यामवर्ण के प्रति ऐसा दुराग्रहपूर्ण सौंदर्यबोध आखिर कब तक चलेगा?

WHITE SUPERMACY CONFLICT
IMAGE CREDIT: PATRIKA


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